Monday, June 5, 2017

◆गीता-सार◆

||श्रीहरि:||
गीता-सार
. सांसारिक मोहके कारण ही मनुष्य "मै क्या करूँ और क्या नहीं करूँ"---इस दुविधामें फँसकर कर्तव्यच्युत हो जाता है। अतः मोह या सुखासक्तिके वशीभूत नहीं होना चाहिए
. शरीर नाशवान है और उसे जाननेवाला शरीरी अविनाशी है ---इस विवेकको महत्व देना और अपने कर्तव्यका पालन करना ---इन दोनोंमेसे किसी भी एक उपायको काममें लानेसे चिन्ता-शोक मिट जाते हैं।
. निष्कामभावपूर्वक केवल दुसरोके हितके लिये अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करनेमात्रसे कल्याण हो जाता है।
. कर्मबन्धनसे छूटनेके दो उपाय है--कर्मो के तत्व को जानकर निःस्वार्थभावसे कर्म करना और तत्वज्ञानका अनुभव करना।
. मनुष्यको अनुकूल- प्रतिकूल परिस्थितियोंके आने पर सुखी -दुःखी नही होना चाहिये; क्योंकि इनसे सुखी-दुःखी होनेवाला मनुष्य संसारसे ऊँचा उठकर परम् आनन्दका अनुभव नहीं कर सकता
. किसी भी साधनसे अन्तःकरणमें समता आनी चाहिये। समता आये बिना मनुष्य सर्वथा निर्विकार नहीं हो सकता
. सबकुछ भगवान् ही हैं---ऐसा स्वीकार कर लेना सर्वश्रेष्ठ साधन है।
. अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार ही जीवकी गति होती है। अतः मनुष्यको हरदम भगवान् का स्मरण करते हुए अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिये, जिससे अन्तकालमें भगवान् की स्मृति बनी रहे
. सभी मनुष्य भगवत्प्राप्तिके अधिकारी हैं, चाहे वे किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, देश, वेश आदिके क्यों हों।
१०. संसारमें जहाँ भी विलक्षणता, विशेषता, सुन्दरता, महत्ता, विद्वत्ता, बलवत्ता आदि दीखे, उसको भगवान् का ही मानकर भगवान् का ही चिन्तन करना चाहिये।
११. इस जगत्को भगवानका ही स्वरूप मानकर प्रत्येक मनुष्य भगवान के विराटरूपके दर्शन कर सकता है।
१२. जो भक्त शरीर -इन्द्रियाँ - मन- बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान के अर्पण कर देता है, वह भगवान को प्रिय होता है।
१३. संसारमें एक परमात्मतत्व ही जाननेयोग्य है। उसको जाननेपर अमरताकी प्राप्ति हो जाती है।
१४. संसार - बन्धनसे छूटनेके लिये सत्त्व, रज और तम--इन तीनों गुणोंसे अतीत होना जरूरी है। अनन्य भक्तिसे मनुष्य इन तीनो गुणोंसे अतीत हो जाता है।
१५. इस संसार का मूल आधार और अत्यन्त श्रेष्ठ परमपुरुष एक परमात्मा ही हैं---ऐसा मानकर अनन्यभावसे उनका भजन करना चाहिये।
१६. दुर्गुण- दुराचारोंसे ही मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकोमें जाता है और दुःख पाता है। अतः जन्म - मरणके चक्रसे छूटनेके लिये दुर्गुण- दुराचारोंका त्याग करना आवश्यक है।
१७. मनुष्य श्रद्धापूर्वक जो भी शुभ कार्य करे उसको भगवान का स्मरण करके, उनके नामका उच्चारण करके ही आरम्भ करना चाहिये
१८. सब ग्रन्थोका सार वेद हैं, वेदोंका सार उपनिषद् हैं, उपनिषदोंका सार गीता है और गीताका सार भगवान् की शरणागति है। जो अनन्यभावसे भगवान की शरण हो जाता है, उसे भगवान सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर देते हैं
--पूज्य स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजके गीताप्रेस, गोरखपुरसे प्रकाशित गीता-साधक- संजीवनी ग्रन्थके आधारपर

नारायण! नारायण!! नारायण!!!

Sunday, June 4, 2017

श्रीभगवन्नाम-महिमा -7-

श्रीभगवन्नाम-महिमा -7-
६१-वाणी को भगवान् के नाम में लगा दे । कम-से-कम जितनी बात, जब, जिस रूप में बोलनी आवश्यक हो, उतनी ही उस रूप में बोले, बाकी समय में अपने को मौन-सा करके भगवान् के नाम का जप करता रहे । जीभ से भगवान् का नाम लेता रहे और अपने कानों द्वारा उसे सुनता रहे-यह मानसिक जप है । इसका बड़ा महत्त्व है ।
६२-वाणी का संयम करने का एक ही उपाय है-भगवन्नाम-जप एवं स्वाध्याय को वाणी का विषय बना ले । जीभ के लिये भगवान् के नाम का जप ही एकमात्र काम रह जाय, दूसरे किसी भी काम के लिये उसमें से समय निकालना न पड़े । जो व्यक्ति इस प्रकार का जीवन बना लेता है, वह जहाँ रहता है, वहीं उसके द्वारा जगत् को एक बहुत बड़ी चीज अपने-आप अनायास ही मिलती रहती है ।
६३-जीभ स्थूल अंग है, कर्मेन्द्रिय है पर यदि यह भगवान् के नाम के साथ लगी रही तो यह जीवन को खींच ले जायगी और जीवन के अन्त में भगवान् का नाम आया कि काम बना ।
६४-भगवान् के नाम-जप का अभ्यास होने के बाद मन से सोचते और हाथ से काम करते रहनेपर भी जीभ से नाम अपने-आप निकलता रहेगा । सारे शास्त्रों के सत्संग का फल यही है कि 'भगवान् के नाम में रूचि हो जाय ।'
६५-श्री भगवान् के एक भी गुण का रहस्य, एक भी नाम की महिमा, एक भी चरित्र का प्रभाव, एक भी शक्ति का तत्त्व जान लिया जाय अथवा एक भी रूप की जरा-सी भी झाँकी का ज्ञान हो जाय तो फिर भगवान् से क्षणभर के लिये भी चित्त न हटे ।
६६-मेरी समझ से सबसे सरल साधन है नाम का अभ्यास । मुख से निरन्तर भगवान् के नाम का उच्चारण होता रहे और हाथों से काम । अभ्यास होनेपर ऐसा होना खूब सम्भव है-बस, 'मुख नाम की ओट लई है ।' विश्वास होगा तो इस नामोच्चारणमात्र से ही कल्याण हो जायगा ।
६७-श्री भगवानपर विश्वास रखकर उनका नाम-जप करना चाहिये और उनकी कृपापर भरोसा करके अपने को सर्वतोभाव से उन्हींपर छोड़ देना चाहिये । ऐसा न हो सके तो भी नाम-जप करना चाहिये । जैसा भाव हो, उसी से कल्याण होगा-आंशिक कृपा के दर्शन होंगे और सांसारिक वासनाएँ किसी अंश में पूर्ण होंगी । परन्तु इसमें घाटा यही रह जायगा कि शीघ्र ही भगवत्प्रेम की प्राप्ति नहीं होगी ।
६८-भगवान् को याद रखने का उपदेश, घंटे-दो-घंटे या अधिक नियमित काल के लिये नाम-जप की आज्ञा, इतनी संख्या पूरी करनेपर सिद्धि हो जायगी, इस लोभ से संख्यायुक्त जप या संख्या की गणना से जप हो जाता है, यों भूल रह जाना सम्भव है, इसलिये संख्या की अवधि बाँधकर जप करना चाहिये, यह आदेश तो उन आरम्भिक साधकों के लिये है, जो भगवान् के प्रेमी नहीं हैं । न करने की अपेक्षा ऐसा करना बहुत उत्तम है ।
६९-प्रेमीजनों को तो अपने प्रेमास्पद का नाम इतना प्यारा होता है कि स्वयं तो वे उसे कभी भूल ही नहीं सकते, दूसरे को कभी भूले-भटके उच्चारण करते सुन लेते हैं, तो उसकी चरण-धूलि लेने दौड़ते हैं ।
७०-श्री भगवान् के नाम का जप जैसे बने, वैसे ही करते रहिये । करते-करते नाम के प्रताप से विश्वास बढ़ेगा, न घबराइये, न हार मानिये ।
जय श्री कृष्ण
'श्रीभगवन्नाम-चिन्तन' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 338, विषय-श्रीभगवन्नाम-महिमा, पृष्ठ-संख्या- ८०-८२, गीताप्रेस गोरखपुर
नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्री हनुमानप्रसाद जी पोद्दार




श्रीमद्भगवद्गीताका प्रभाव -4-
गीता का विषय-विभाग
गीता का विषय बड़ा ही गहन और रहस्यपूर्ण है | साधारण पुरुषों की तो बात ही क्या, इसमें बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं | कोई-कोई तो अपने आशय के अनुसार ही इसका अर्थ कर लेते हैं | उन्हें अपने मत के अनुसार इसमें मसाला भी मिल जाता है | क्योंकि इसमें कर्म, उपासना, ज्ञान सभी विषयों का समावेश है और जहाँ जिस विषय का वर्णन आया है वहाँ उसकी भगवान् ने वास्तविक प्रशंसा की है | अत: अपने-अपने मत को पुष्ट करने के लिये इसमें सभी विद्वानों को अपने अनुकूल सामग्री मिल ही जाती है | इसलिये ये अपने सिद्धान्त के अनुसार मोम के नाक की तरह खींचातानी करके इसे अपने मत की ओर ले जाते हैं | जो अद्वैतवादी (एक ब्रह्म को माननेवाले) हैं, वे गीता के प्रायः सभी श्लोकों को अभेद की तरफ, द्वैतवादी द्वैत की तरफ और कर्मयोगी कर्म की तरफ ही ले जाने की चेष्टा करते हैं अर्थात् ज्ञानियों को यह गीताशास्त्र ज्ञान का, भक्तों को भक्तियोग का और कर्मयोगियों को कर्म का प्रतिपादक प्रतीत होता है | भगवान् ने बड़ी गम्भीरता के साथ अर्जुन के प्रति इस रहस्यमय ग्रन्थ का उपदेश किया, जिसे देखकर प्राय: सभी संसार के मनुष्य इसे अपनाते और अपनी ओर खींचते हुए कहते हैं कि हमारे विषय का प्रतिपादन इसमें किया गया है | परन्तु भगवान् ने द्वैत, अद्वैत या विशिष्टाद्वैत आदि किसी वाद को या किसी धर्म-सम्प्रदाय जाति अथवा देशविशेष को लक्ष्य में रखकर इसकी रचना नहीं की | इसमें न तो किसी धर्म की निन्दा और न किसी की पुष्टि ही की गयी है | यह एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है और भगवान् द्वारा कथित होने से इसे स्वत: प्रामाणिक मानना चाहिये | इसे दूसरे शास्त्र के प्रमाणों की आवश्यकता नहीं है–यह तो स्वयं दूसरों के लिये प्रमाण-स्वरुप है | अस्तु !
जय श्री कृष्ण
'तत्त्वचिन्तामणि' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 683, विषय- श्रीमद्भगवद्गीताका प्रभाव, पृष्ठ-संख्या- २७३, गीताप्रेस गोरखपुर
ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय श्री जयदयाल जी गोयन्दका सेठजी

सृष्टि की सबसे बड़ी खोज - Greatest discovery in the history of mankind!

क्षीर सागर मेरु पर्वत और दानव और देवताओ द्वारा प्रसिद्द समुद्र मंथन की घटना जो हजारो वर्षो से भारत के प्रत्येक घरो में ब्रह्म मुहूर्त के दौरान भी घटित होती रही है अर्थात गोमाता के दूध से बना दही और उसमे मंथन की प्रक्रिया से निकला हुआ मक्खन और उससे निर्मित घृत, यह सृष्टि की सबसे बड़ी खोज है
कैसे?
इसी खोज की प्रेरणा से पिछले दिनों "बिग बैंग थ्योरी" निकली गयी और बतलाया गया की सृष्टि के निर्माण में लगे हुए सूक्ष्म कण ही विष्णु और शिव ऊर्जा है

इन दोनों उर्जाव के स्वरुप के लिए एक ब्रह्म ऊर्जा है जो अदृश्य है इस अदृश्य ऊर्जा में प्रज्ञा रुपी चेतना है सृष्टि में इस उर्जा की अधिकता केवल देसी गाय के दूध से वैदिक प्रक्रियाओ द्वारा निकाले गए मक्खन में है इसीलिए मक्खन रूपी गव्य ही इस सृष्टि में साक्षात् ब्रह्म ऊर्जा है जिसे धारण कर जीव जगत बुद्धिशाली, बलशाली और सृष्टि को संतुलित रखने वाली चित्त प्रवृति वाला होता है
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विषय विस्तार से
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क्या हमने कभी कल्पना की है की सृष्टि उदय के बाद वह कौन होगा जिसने पहली बार दूध से दही बनाने की प्रक्रिया खोजी होगी
दही को मथ कर उसमे से मक्खन निकला होगा और मक्खन को अग्नि पर तपाकर उसमे से सृष्टि का सबसे सुद्ध अग्नि-घृत की खोज की होगी
गोमाता इस सृष्टि को उसके संतुलन के लिए तीन महाभूत प्रत्यक्ष रूप में देती है गोबर रुपी मिटटी महाभूत, मूत्र रुपी वायु महाभूत और दूध रुपी जल महाभूत लेकिन सृष्टि के निर्माण में दो और महाभूत है अग्नि और आकाश इन दोनों की ख़ोज ही क्षीर सागर, मेरु पर्वत और देव दानवो द्वारा की गयी मंथन क्रिया है इसमें क्षीर सागर दूध से भरा घड़ा है मेरु पर्वत उस दही को मथने वाली मथनी है और हमारे दो हाथ जिनसे यह क्रिया होती है उसमे एक देव हस्त (पुण्य) है और दूसरा दानव हस्त (पाप) है
इस मंथन की क्रिया में मथनी का एक बार पृथ्वी की दिशा में घूमने से और दूसरी बार विपरीत दिशा में घूमने से दही के परमाणु आपस में टकराते है और परमाणुओं का सामूहिक रूप से विखंडन होता है उस विखंडन से निकले हुए दही के प्रोटोन (Proton) आपस में तेज़ गति से टकराते है और उनका विखंडन भी होता है यही पर सृष्टि के निर्माण में लगे हुए तीनो ऊर्जाओ का अलग होना और फिर सम्मिलित होने की प्रक्रिया काफी देर तक चलती है इस क्रिया के फलस्वरूप ही दही अपने अन्दर छिपे हुए अग्नि को जल के साथ मिश्रित कर मक्खन के रूप में बाहर निकाल देता है
यह मक्खन जो सहज रूप से अर्द्धतरल के रूप में दीखन है यह वास्तव में सृष्टि का ऐसे अद्भुत पदार्थ है जिसमे दो विरुद्ध महाभूतो का समावेश है -अग्नि और जल जो कभी साथ रहने की प्रकृति वाले नहीं है लेकिन मक्खन में साथ-साथ रहते है इसी मक्खन को जब हम अग्नि पर तपाते है तब उसमे से जल वाष्प के रूप में उड़ जाता है और सृष्टि की शुद्ध अग्नि जो अग्नि महाभूत के नाम से जाना जाता है वह हमे प्राप्त होता है। इस घृत को जलने से जो लौ बनती है और उस से निकलने वाली प्रकाश की किरणें सूर्य नारायण की किरणों के सदृश्य है जिसमे सृष्टि के सञ्चालन की दो ऊर्जाए "प्रज्ञा एवं क्रिया ऊर्जा" का समावेश होता है। ऐसे घृत से जलता हुआ दीपक सौर मंडल के सूरज का एक छोटा हिस्सा है इस प्रकार से बना 10 ml घृत यदि किसी दीपक में जले तब उससे सोलह सौ लीटर अशुद्ध वायु का रूपांतरण प्राण वायु (ऑक्सीजन) रूप में होता है
यही कारण है की वेदों में सूर्य नारायण की किरणों का नाम "गौ" भी है। वेद कहते है सूर्य की किरणों में ज्योति, आयु और "गौ" यह तीन प्रकृति है। इन तीनो से ही वनस्पति जगत और जीव जगत को यथा संभव उर्जा मिलती है। किरणों में जो "गौ" प्रकृति है उसका शोषण केवल भारतीय नस्ल की गौमाताएं ही कर सकती है इसीलिए भारत के महर्षियों ने इस जीव को "गौ" कहा और अपने लिए, अपने उपयोग की वनस्पतियों के लिए पृथ्वी और सृष्टि को दीर्घायु बनाने के लिए "गौ" का सानिध्य किया यजुर्वेद की एक ऋचा में एक प्रश्न है
"कस्य मात्र विद्यते"?
पृथ्वी और सृष्टि दोनों ही गोमाता के स्वरुप है उनमे कोई भेद नहीं है दोनों ही एक दूसे के सहायक और परिपूरक है
इसी क्रिया को आधुनिक विज्ञानं ने समझा और उसे प्रमाणित करने के लिए इस कलयुग का सबसे बड़ा परिक्षण "Big Bang Test" के नाम से वर्ष 2006 में स्विट्ज़रलैंड की सीमा पर किया इस परिक्षण में 27 km परिधि की एक सुरंग धरती के गर्भ में बनाया गया उसमे बड़े बड़े चुम्बकीय ऊर्जा वाले यंत्र जिसे इकोलाईज़र मशीन कहते है लगाये गए इन मचीनो की मदद से शुद्ध हाइड्रोजन परमाणुओं को तोड़ कर इसके Protons को सूर्या की किरणों के बराबर वेग देकर आपस में टकराया गया।
जिसे प्रोटोन Bombardment कहा गया। इस क्रिया ने protons को तोड़ दिया इसके तीन खंड हुए जिनमे दो खंडो के पास आकृति मिली पहली आकृति जिसकी संरचना शिवलिंग की तरह दिखलाई दी और दूसरी संरचना भगवन विशुर के सहस्र रूप की तरह एवं तीसरा खंड एक ज्योति पुंज की तरह निकला और ओझल हो गया यही ब्रह्मा है जिसकी कोई आकृति नहीं है लेकिन जैसे ही शिव और विष्णु स्वरुप के बीच से निकला प्रोटोन नष्ट हो गया अर्थात वह ज्योति पूंज ही वह ऊर्जा है जो इस सृष्टि को बांधे हुए है इसीलिए ब्रम्हा रूप यह जयोगी पुंज ही इश्वर है जिनसे इस सृष्टि का निर्माण हुआ है यही कारण है की आधुनिक वज्ञानिको ने पहली बार स्वीकार किया की इश्वर का अस्तित्व है जिसका दर्शन उन्होंने क्षण भर के लिए किया और माना की भारत की धरना "कण-कण में इश्वर है" यह शाश्वत सत्य है
इस प्रयोग की प्रक्रियाओ का ज्ञान वैज्ञानिको को भारत के उन घरो से मिला जहाँ आज भी ब्रह्म मुहूर्त में दही मंथन की क्रिया होगा है मक्खन रुपी आण्विक ऊर्जा निकली जाती है इसी आण्विक ऊर्जा के सेवन से भारत भूमि पर ऋषि और क्रन्तिकारी पैदा होते आये लेकिन दुर्भाग्य हम भारतवासियों का की सृष्टि के इस उत्क्रष्ट अनुसंधान हमने खोया यही कारण है की आज के भारत में ऋषि व्यक्तित्व और भगवन श्री कृष्ण जैसे क्रन्तिकारी व्यक्तित्व जन्म नहीं ले रहे।
भारत का भविष्य इस पर निर्भर
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जब भारत के बच्चो को दोबारा मक्खन रूपी ब्रह्म उर्जा और गोमाता का सानिध्य प्राप्त होगा तभी इस धरती पर फिर से ऋषि और वीर पुरुष पैदा होंगे
यदि भारत को समृद्ध और शक्तिशाली, ऋषियों-क्रांतिकारियों का देश बनाना है तो इस आण्विक परिक्षण के लघु रूप को घरो में स्थापित करना होगा
अतः किसी भी कीमत पर यह कार्य करें तभी हम भारत को विदेशी कंपनियों की लूट से मुक्त कर स्वदेशी और स्वावलंबी भारत बना सकते है
ज्ञान स्त्रोत : गव्यसिद्धाचार्य श्री निरंजन वर्मा
संस्थापक पंचगव्य विद्यापीठं

Sourec: panchgavya.org

Food habits in Ayurved

The more you let Ayurveda and Yoga become the basis for your living, the easier living gets. Here are Some Ancient Indian Health Tips. - quo...