Sunday, June 4, 2017

श्रीभगवन्नाम-महिमा -7-

श्रीभगवन्नाम-महिमा -7-
६१-वाणी को भगवान् के नाम में लगा दे । कम-से-कम जितनी बात, जब, जिस रूप में बोलनी आवश्यक हो, उतनी ही उस रूप में बोले, बाकी समय में अपने को मौन-सा करके भगवान् के नाम का जप करता रहे । जीभ से भगवान् का नाम लेता रहे और अपने कानों द्वारा उसे सुनता रहे-यह मानसिक जप है । इसका बड़ा महत्त्व है ।
६२-वाणी का संयम करने का एक ही उपाय है-भगवन्नाम-जप एवं स्वाध्याय को वाणी का विषय बना ले । जीभ के लिये भगवान् के नाम का जप ही एकमात्र काम रह जाय, दूसरे किसी भी काम के लिये उसमें से समय निकालना न पड़े । जो व्यक्ति इस प्रकार का जीवन बना लेता है, वह जहाँ रहता है, वहीं उसके द्वारा जगत् को एक बहुत बड़ी चीज अपने-आप अनायास ही मिलती रहती है ।
६३-जीभ स्थूल अंग है, कर्मेन्द्रिय है पर यदि यह भगवान् के नाम के साथ लगी रही तो यह जीवन को खींच ले जायगी और जीवन के अन्त में भगवान् का नाम आया कि काम बना ।
६४-भगवान् के नाम-जप का अभ्यास होने के बाद मन से सोचते और हाथ से काम करते रहनेपर भी जीभ से नाम अपने-आप निकलता रहेगा । सारे शास्त्रों के सत्संग का फल यही है कि 'भगवान् के नाम में रूचि हो जाय ।'
६५-श्री भगवान् के एक भी गुण का रहस्य, एक भी नाम की महिमा, एक भी चरित्र का प्रभाव, एक भी शक्ति का तत्त्व जान लिया जाय अथवा एक भी रूप की जरा-सी भी झाँकी का ज्ञान हो जाय तो फिर भगवान् से क्षणभर के लिये भी चित्त न हटे ।
६६-मेरी समझ से सबसे सरल साधन है नाम का अभ्यास । मुख से निरन्तर भगवान् के नाम का उच्चारण होता रहे और हाथों से काम । अभ्यास होनेपर ऐसा होना खूब सम्भव है-बस, 'मुख नाम की ओट लई है ।' विश्वास होगा तो इस नामोच्चारणमात्र से ही कल्याण हो जायगा ।
६७-श्री भगवानपर विश्वास रखकर उनका नाम-जप करना चाहिये और उनकी कृपापर भरोसा करके अपने को सर्वतोभाव से उन्हींपर छोड़ देना चाहिये । ऐसा न हो सके तो भी नाम-जप करना चाहिये । जैसा भाव हो, उसी से कल्याण होगा-आंशिक कृपा के दर्शन होंगे और सांसारिक वासनाएँ किसी अंश में पूर्ण होंगी । परन्तु इसमें घाटा यही रह जायगा कि शीघ्र ही भगवत्प्रेम की प्राप्ति नहीं होगी ।
६८-भगवान् को याद रखने का उपदेश, घंटे-दो-घंटे या अधिक नियमित काल के लिये नाम-जप की आज्ञा, इतनी संख्या पूरी करनेपर सिद्धि हो जायगी, इस लोभ से संख्यायुक्त जप या संख्या की गणना से जप हो जाता है, यों भूल रह जाना सम्भव है, इसलिये संख्या की अवधि बाँधकर जप करना चाहिये, यह आदेश तो उन आरम्भिक साधकों के लिये है, जो भगवान् के प्रेमी नहीं हैं । न करने की अपेक्षा ऐसा करना बहुत उत्तम है ।
६९-प्रेमीजनों को तो अपने प्रेमास्पद का नाम इतना प्यारा होता है कि स्वयं तो वे उसे कभी भूल ही नहीं सकते, दूसरे को कभी भूले-भटके उच्चारण करते सुन लेते हैं, तो उसकी चरण-धूलि लेने दौड़ते हैं ।
७०-श्री भगवान् के नाम का जप जैसे बने, वैसे ही करते रहिये । करते-करते नाम के प्रताप से विश्वास बढ़ेगा, न घबराइये, न हार मानिये ।
जय श्री कृष्ण
'श्रीभगवन्नाम-चिन्तन' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 338, विषय-श्रीभगवन्नाम-महिमा, पृष्ठ-संख्या- ८०-८२, गीताप्रेस गोरखपुर
नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्री हनुमानप्रसाद जी पोद्दार




श्रीमद्भगवद्गीताका प्रभाव -4-
गीता का विषय-विभाग
गीता का विषय बड़ा ही गहन और रहस्यपूर्ण है | साधारण पुरुषों की तो बात ही क्या, इसमें बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं | कोई-कोई तो अपने आशय के अनुसार ही इसका अर्थ कर लेते हैं | उन्हें अपने मत के अनुसार इसमें मसाला भी मिल जाता है | क्योंकि इसमें कर्म, उपासना, ज्ञान सभी विषयों का समावेश है और जहाँ जिस विषय का वर्णन आया है वहाँ उसकी भगवान् ने वास्तविक प्रशंसा की है | अत: अपने-अपने मत को पुष्ट करने के लिये इसमें सभी विद्वानों को अपने अनुकूल सामग्री मिल ही जाती है | इसलिये ये अपने सिद्धान्त के अनुसार मोम के नाक की तरह खींचातानी करके इसे अपने मत की ओर ले जाते हैं | जो अद्वैतवादी (एक ब्रह्म को माननेवाले) हैं, वे गीता के प्रायः सभी श्लोकों को अभेद की तरफ, द्वैतवादी द्वैत की तरफ और कर्मयोगी कर्म की तरफ ही ले जाने की चेष्टा करते हैं अर्थात् ज्ञानियों को यह गीताशास्त्र ज्ञान का, भक्तों को भक्तियोग का और कर्मयोगियों को कर्म का प्रतिपादक प्रतीत होता है | भगवान् ने बड़ी गम्भीरता के साथ अर्जुन के प्रति इस रहस्यमय ग्रन्थ का उपदेश किया, जिसे देखकर प्राय: सभी संसार के मनुष्य इसे अपनाते और अपनी ओर खींचते हुए कहते हैं कि हमारे विषय का प्रतिपादन इसमें किया गया है | परन्तु भगवान् ने द्वैत, अद्वैत या विशिष्टाद्वैत आदि किसी वाद को या किसी धर्म-सम्प्रदाय जाति अथवा देशविशेष को लक्ष्य में रखकर इसकी रचना नहीं की | इसमें न तो किसी धर्म की निन्दा और न किसी की पुष्टि ही की गयी है | यह एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है और भगवान् द्वारा कथित होने से इसे स्वत: प्रामाणिक मानना चाहिये | इसे दूसरे शास्त्र के प्रमाणों की आवश्यकता नहीं है–यह तो स्वयं दूसरों के लिये प्रमाण-स्वरुप है | अस्तु !
जय श्री कृष्ण
'तत्त्वचिन्तामणि' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 683, विषय- श्रीमद्भगवद्गीताका प्रभाव, पृष्ठ-संख्या- २७३, गीताप्रेस गोरखपुर
ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय श्री जयदयाल जी गोयन्दका सेठजी

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